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Monday, February 21, 2011

शीतलता की आस क्यूँ


तपती हुई दुपहरी मे वर्षा का कयास क्यूँ,
उष्णता ही भाग्य है तो शीतलता की आस क्यूँ,


गेरू-आ पहन भी गर राम और अल्लाह हैं दो,
तो लौट आओ समाज मे ये व्यर्थ का सन्यास क्यूँ,


एक -दूजे को देख-कर, हर एक बस ये सोचता है
सभी हैं मगन खुशी मे और में निराश क्यूँ,


मेरा घर रोशनी से हो भले सराबोर मगर,
बगलवाले झोंपडे मे दिए का प्रकाश क्यूँ,


हुए जमाने साथ मे मिल-बैठ के बतियाए हुए
अपनो के लिए कहो अपनत्व का ही नाश क्यूँ,


होते हुए को भूलना आसान है मुश्किल नही,
जो याद आते हैं सदा, होते नही वो पास क्यूँ


सेवा तो तुम कर ना सके, अब चुप तो रहो कपूत मेरे
वृद्धा-वस्था की अवधि का हास क्यूँ परिहास क्यूँ

Sunday, February 20, 2011

काल्पनिक कौवा



कल्पना ही था वो एक,
मुझे बहलाने के लिए,
मा ने गढ़ा था उसे महज़,
मुझे खाना खिलाने के लिए,


अक्सर मेरी ना खाने की ज़िद पे,

मा अपने हाथ से नीवाला बनाती,
एक काल्पनिक कौवा, जो मेरा नीवाला खाने को,
तैयार रहता, उसका डर दिखाती,


और मे कौवे के खाने से पहले,
वो कौर जल्दी से खा लेता,
मा फिर से एक कौर बनाती,
और फिर से एक काल्पनिक कौवा,


ये सिलसिला बरसों चलता रहा,
लेकिन वो काल्पनिक कौवा,
मुझसे कभी जीत नही पाया,
ना ही वो कभी मेरे सामने आया,


मगर अब बरसों बाद,
काम के बोझ की शक्ल मे
अक्सर मेरा नीवाला वो कौवा खा लेता है,
मा, अब वो काल्पनिक कौवा हक़ीक़त है,
अब अक्सर वो जीत जाता है,
और मे हार जाता हूँ

Friday, February 18, 2011

बातें.....


बहूत कर चुका हूँ मे, लबो-रुखसार की बातें,
पलकों की चिलमन की, तेरे दीदार की बातें,
तेरी कम्बख़्त नज़रों के तीरो तलवार की बातें,
गुलशन चमन की फूलों की बहार की बातें


चलो आज करते हैं कुछ घर-संसार की बातें,
बूढ़े बाप की चर्चा, उस बीमार की बातें,
मा के आँचल से बहती रूहानी बयार की बातें
उन बहनो की यादें, उनके दुलार की बातें,


तुम्हारे रुखसार से जाते गुलाबी खुमार की बातें,
हक़ीकत से मुँह चुराते तुम्हारे प्यार की बातें,
चलो मे बंद करता हूँ फिर ये बेकार सी बातें,
लो फिर से करने लगा हूँ मे, झूठे प्यार की बातें,


तेरी कम्बख़्त नज़रों के तीरो तलवार की बातें,
गुलशन चमन की फूलों की बहार की बातें........

Wednesday, February 16, 2011

काँच की बरनी मे रखा आम का आचार



छतों पे बिखरी होती थी पतंगों की बहार,
नीचे बुलाती लालों को, माओं की पूकार,
छुपान-छुपी का खेल, सतोलिये का खुमार,
मंदिर मे प्रसाद के लिए लगाए लंबी कतार
साइकिलों की रेस मे गिरना-उठना बार बार,
टायरों के खेल और धूल के गुबार,
गुलेल छोटी सी शेर चीतों के शिकार
धमाल, मार-धाड़ फिर शर्ट तार तार,
हुआ गली के आवराओं मे अपना भी शुमार,
आईने मे चेहरा अपना ताकना बार बार,
हर शोख हसीना से कम्बख़्त हो जाता था प्यार,
पापा की लानतो से ही फिर उतरता था बुखार,
गर्मी की तपती लू भी लगे बसंती बयार,
हर पल नयी उमंग थी हर दिन था त्योहार,
क्या उम्र थी, क्या ज़ज़्बा था क्या क्या नही था यार,
वो दिन हवा हुए अब ज़िम्मेदारियों की मार,
हर रोज करती है नई मुसीबतें इंतज़ार,
मक्डोनाल्ड का बर्गर खाते हुए याद आ गया,
काँच की बरनी मे रखा आम का आचार

Monday, February 14, 2011

बाज़ार नही मिलते


"सच्चे सौदे" की लिए अब यहाँ, बाज़ार नही मिलते,
सच्चाई और ईमानदारी के, खरीदार नही मिलते,


मेरे अंजाम से बे-खबर, कुछ लोग कह गये,
अब "रांझा, मजनू" से इश्क़ के, तलबगार नही मिलते,


"नव-रत्नो" का सा इल्म रखते है अब भी लोग पर
उन्हे अकबर जैसे शहन्शाओं के, दरबार नही मिलते,


मे रोया शिद्दत से और छलका आसमान भी,
लोग कहते हैं अब "बैजू बावरा" से, फनकार नही मिलते


मसरूफ़ यूँ रहते हैं वो पराए शगल मे,
घर लौटते हैं तो खुद के ही, घर-बार नही मिलते,


तिरछी निगाह का असर, घायल हुए कई,
हसिनाओं के पास अब ये, हथियार नही मिलते


उस रास्ते को सही समझने का गुमान ना करना दोस्त
जिस रह पे सिर्फ़ गुल मिलें, और ख्वार नही मिलते


तसल्ली सी दे गये, दुश्मनो के ये बयान
तुम जैसे रक़ीब जिंदगी मे हर-बार नही मिलते


सारे आम नुमाइश गुनाहों की, साक़ि-शराब की
अब "बेकरार" से सीधे सादे, गुनहगार नही मिलते

Saturday, February 12, 2011

ख़याली बातों से


ख़याली बातों से इश्क़ की आज़माइश ना करो,
नामुमकिन है, चाँद सितारों की फरमाइश ना करो,


मिलो तो फिर यूँ टूट के मिलो हमसे की,
दरमियाँ फिर हवाओं की भी गुंजाइश ना करो,


कम्बख्त आँसू हैं के रुकने का नाम नही लेते,
वो कहते हैं सर-ए-आम, दर्द की नुमाइश ना करो,


जात-पात, दीनो-धरम सिख़ाओ तो "बेकरार"
पर नफ़रतों की नस्ल की पैदाइश ना करो

Friday, February 11, 2011

कुछ तो ज़रूर है


ग़लत क्या है, अगर उन्हे हुस्न पे गुरूर है
इक निगाह ही देखा था मुझे अब तक सुरूर है, 


तुझे छूकर मेरे ख्वाब की तामील हो गई,
चाँद को कैसे छूता, जो कोसों दूर है,


तुम्ही तो सहते रहे हर ज़ुल्म बेआवाज़, 
अब इंतिहा हुई तो, किस्मत का कसूर है,


ना गोलियों की दरकार ना जाम की फरमाइश,
बेफिकर सो रहा है, जो थक के चूर है


बेखयाली मे भी दुपट्टा, सरकने नही देती,
मेरे मोहल्ले की लड़कियों मे अब भी सहूर है


सोच मे पड़ जाता है, जो तेरी ग़ज़ल पढ़े,
तेरी बातों मे "बेकरार" कुछ तो ज़रूर है