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Wednesday, April 20, 2011

असलियत छुपाई लाख


रुख़ बदला हवाओं का, और परदा सरक गया,
असलियत छुपाई लाख, पर चेहरा झलक गया,


ना किर्चेन ही बिखरी, ना आवाज़ कोई आई,
इस अदा से लगी ठेस के बस शीशा दरक गया,


उसी दिन से बे-ईमानी से, कुछ बू सी आने लगी,
जिस दिन बू-ए-ईमान से गिरेबान महक गया,


तर्क-ए-ताल्लुक को लोग, मेरी रज़ा जाने बैठे थे,
एन वक़्त पे आँखों से एक आँसू छलक गया,


सोच और सच मे बस "यक़ीन" के फ़ासले हैं,
कल तस्सवूर किया शराब का, सच मे बहक गया,


खुद से अजनाबीपन की, इंतहा है "बेकरार"
जो आईना देखा तो दिल, बेतरह धड़क गया.