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Sunday, June 12, 2011

तहज़ीब भी सिखाई होती

हसरत थी इतनी तो थोड़ी हिम्मत भी दिखाई होती
आ ही गये थे बाज़ार मे तो बोली भी लगाई होती,

क्या क्या ना कहता रहा,  नज़रें झुका के वो
सच्चाई थी बातों मे तो नज़रें भी मिलाई होती,

गाँधी-नेहरू की बातें, ठीक है बेटे को सुनाना,
बाप-दादा की कहानी भी कभी उसको सुनाई होती,

मेरी रज़ा को बूझती है खुद की रज़ा से पहले
क्यूँ इतना ख़याल करती अगर बेटियाँ पराई होती,

वज़ूद को यूँ कोसती रही, रात भर शमा
ना मे जलती, ना हम मिलते,  ना जुदाई होती

इतना भी खुला ना छोड़ो, की अफ़सोस हो “बेक़रार”
काश बच्चों को थोड़ी तहज़ीब भी सिखाई होती,

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता। बच्चों को सम्पूर्णता में शिक्षा देना माता-पिता का दायित्व है।

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  2. बेक़रार जी,
    आपकी ग़ज़लें तो बहुत उम्दा हैं। मैं पिछली पोस्ट्स की 4 ग़ज़लें और पढ़ता चला गया।
    शब्द सरल किंतु भाव गहन- यही आपकी रचनाओं की विशेषता है।
    शुभकामनाएं।

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  3. मनप्रीत जी, ज़ील जी और महेन्द्र जी ...इस रचना को अपना कीमती वक़्त दिया और होसला-अफज़ाई की...आप सभी का आभार, साथ बनाए रखें

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  4. वज़ूद को यूँ कोसती रही, रात भर शमा
    ना मे जलती, ना हम मिलते, ना जुदाई होती aapki gazal ka har sher apne aap me poornata liye hue hai....sunder...

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  5. इतना भी खुला ना छोड़ो, की अफ़सोस हो “बेक़रार”
    काश बच्चों को थोड़ी तहज़ीब भी सिखाई होती,


    आनन्द आ गया...उम्दा गज़ल.

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