वक़्त ने तार-तार किए, आज चेहरे पे नक़ाब नही
तुम्हारे पास सवाल कई, मेरे पास जवाब नही,
इल्ज़ाम तेरे सर-आँखों पर, हर लानत मुझे कबूल
तसलीम मेरे गुनाहों की, पर तू भी पाक-सॉफ नही,
दावे मुझे समझने के सब, आख़िर झूठे ही निकले,
थोड़ा पेचीदा हूँ मे, कोई खुली किताब नही,
तन्हाई मे समझ सको, जब मेरे बारे मे सोचो
जितना तूने समझा है मे उतना भी खराब नही
बाहर से परखोगे तो खंड-हर सा मुझको पाओगे
मे अधूरी इमारत सा हूँ, जिस पर कोई मेहराब नही
हौसले की दाद भला, कैसे ना देता “बेकरार”
आज कही सब सच्ची बातें, और हाथ मे शराब नही
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