फाके मे दिन गुज़ारे, रईसी भी देखी,
महफिलें जमाई, तन्हाईयां भी देखी,
कुछ इस कदर बढ़ी वाकिफियत हमारी,
जीने की हर अदा अब लगती है देखी देखी,
देख कर किसी को अनदेखा सा करना,
वक़्त के साथ साथ नज़र बदलते देखी,
जी ना सकूँगा तुम बिन हज़ारों दफ़ा कहा था,
जाने के बाद उनके जीने की चाह देखी,
तेरे बिना हंस पाऊँगा, सोचा तक नही था,
ज़िल्लत से हंस के मैने, सोचें बदलते देखी,
सच पे हमेशा रहना, सच्चे का साथ देना,
बारी जो खुद की आई, सीखें बदलते देखी,
कुछ इस कदर बढ़ी वाकिफियत हमारी,
जीने की हर अदा अब लगती है देखी देखी
Tuesday, December 28, 2010
मेरा ख़याल
कुछ सवालों का सवाल बने रहना ही अच्छा है,
कुछ जवाबों को भी सवाल कहना ही अच्छा है
किस किस को बताएँगे, क्या गुज़री है हम पे,
सब ठीक है ये कह के निकलना ही अच्छा है,
गर वादा किया है चाँद को धरती पे लाने का,
वक़्त रहते इस वादे से मुकरना ही अच्छा है,
दिलों के मिलने से फ़ासले, दो घरों मे गर आए,
बेकार है मिलना फिर बिछड़ना ही अच्छा है
किसी और की बर्बादी अगर जीतने की शर्त हो
तो जिंदगी की दौड़ मे पिछड़ना ही अच्छा है
कुछ जवाबों को भी सवाल कहना ही अच्छा है
किस किस को बताएँगे, क्या गुज़री है हम पे,
सब ठीक है ये कह के निकलना ही अच्छा है,
गर वादा किया है चाँद को धरती पे लाने का,
वक़्त रहते इस वादे से मुकरना ही अच्छा है,
दिलों के मिलने से फ़ासले, दो घरों मे गर आए,
बेकार है मिलना फिर बिछड़ना ही अच्छा है
किसी और की बर्बादी अगर जीतने की शर्त हो
तो जिंदगी की दौड़ मे पिछड़ना ही अच्छा है
उलझने
अल्फाज़ों मे बयान खूबसूरती को किया जाए कैसे,
हो बेमिसाल हुस्न तो कलम रुक भी जाए कैसे
ये कम्बख़त है खुद की हदों से बेख़बर
दिल-ए-नादान को इसकी सरहदें बतलाएँ कैसे,
है आसमान के चाँद पर सभी का इख्तियार,
पर तुम चाँद हो जमी का इसे समझाए कैसे
हुआ गुम मेरा वज़ूद, तलबगारों की भीड़ मे
मुझ तक तेरी निगाह भी अब आए कैसे,
तेरे बगैर हासिल हर इक शै है बेमाज़ा
समंदर की भला प्यास कहो बुझाए कैसे,
हो बेमिसाल हुस्न तो कलम रुक भी जाए कैसे
ये कम्बख़त है खुद की हदों से बेख़बर
दिल-ए-नादान को इसकी सरहदें बतलाएँ कैसे,
है आसमान के चाँद पर सभी का इख्तियार,
पर तुम चाँद हो जमी का इसे समझाए कैसे
हुआ गुम मेरा वज़ूद, तलबगारों की भीड़ मे
मुझ तक तेरी निगाह भी अब आए कैसे,
तेरे बगैर हासिल हर इक शै है बेमाज़ा
समंदर की भला प्यास कहो बुझाए कैसे,
करें इश्क़ पहले या फिर करें रोटियो का जुगाड़,
इन बेमुररव्ात उलझानो को, सुलझाएँ कैसे
दीप
क्यूँ तुम्हे अपनी क्षमताओं पर विश्वास नही होता,
माना की दीप की लौ मे चाँद सा प्रकाश नही होता
दीवाली की रात पर आज भी है सिर्फ़ दीपों का अधिकार,
अमावस्या की रात मे चाँदनी का अहसास नही होता,
माना की तुम मोहताज हो बाति के, तेल के, पर
दस्तूर है बिना मिले-जुले जीवन का विकास नही होता,
क्या चिंतित हो जीवन की लघु अवधि को सोच के,
उपलब्धियों के बिना लंबा जीवन भी ख़ास नही होता,
पतंगों को आज भी तुम्हारी लौ मे जलते देखा है,
क्या तुम्हे उनकी शहादत का एहसास नही होता,
जब प्रज्वल्लित हो ही गये हो, तो पूरे जोश से दो प्रकाश,
जिंदगी खुल के जीने से जीवन का नाश नही होता
माना की दीप की लौ मे चाँद सा प्रकाश नही होता
दीवाली की रात पर आज भी है सिर्फ़ दीपों का अधिकार,
अमावस्या की रात मे चाँदनी का अहसास नही होता,
माना की तुम मोहताज हो बाति के, तेल के, पर
दस्तूर है बिना मिले-जुले जीवन का विकास नही होता,
क्या चिंतित हो जीवन की लघु अवधि को सोच के,
उपलब्धियों के बिना लंबा जीवन भी ख़ास नही होता,
पतंगों को आज भी तुम्हारी लौ मे जलते देखा है,
क्या तुम्हे उनकी शहादत का एहसास नही होता,
जब प्रज्वल्लित हो ही गये हो, तो पूरे जोश से दो प्रकाश,
जिंदगी खुल के जीने से जीवन का नाश नही होता
बरसों ये जिंदगी
सेहरा मे बदलती रही बरसों ये जिंदगी,
लम्हों मे ही कटती रही बरसों ये जिंदगी,
राहों मे भटकता रहा, मंज़िल ना पा सका,
हर राह पे ठिठकती रही बरसों ये जिंदगी,
मरता रहा हर दिन मे जीने की आस मे,
हाथों से फिसलती रही, बरसों ये जिंदगी,
खुशियो को ढूँढ-ढूँढ के हंसता रहा हूँ मे
हर धुन पे थिरकती रही,बरसों ये जिंदगी,
थपेड़ों से ज़िदगी के किनारे पे आ गई,
मछली सी तड़पती रही, बरसों ये जिंदगी,
रिश्तों को सींचता रहा ता-उम्र बेकरार,
और शोलों सी धधक-ती रही बरसों ये जिंदगी
लम्हों मे ही कटती रही बरसों ये जिंदगी,
राहों मे भटकता रहा, मंज़िल ना पा सका,
हर राह पे ठिठकती रही बरसों ये जिंदगी,
मरता रहा हर दिन मे जीने की आस मे,
हाथों से फिसलती रही, बरसों ये जिंदगी,
खुशियो को ढूँढ-ढूँढ के हंसता रहा हूँ मे
हर धुन पे थिरकती रही,बरसों ये जिंदगी,
थपेड़ों से ज़िदगी के किनारे पे आ गई,
मछली सी तड़पती रही, बरसों ये जिंदगी,
रिश्तों को सींचता रहा ता-उम्र बेकरार,
और शोलों सी धधक-ती रही बरसों ये जिंदगी
मुक़द्दर यारों मेरा भी बदल गया होता
मुक़द्दर यारों मेरा भी बदल गया होता,
वक़्त रहते गर साँप आस्तीन का निकल गया होता,
चाहने वालों से ही बरकरार है अब तक,
नूर वरना ताजमहल का भी ढल गया होता,
तपिश सच्चाई की तेरी बातों मे भी कम थी,
वज़ूद मेरे झूठ का वरना पिघल गया होता,
अपाहिज बना दिया मुझे, तेरे बेजा सहारे ने
ठोकरें खा के दो-चार, मे भी संभल गया होता,
खरीद लेता "बेकरार" भी जहाँ भर की खुशियाँ,
खोटा सिक्का गर बाज़ार मे मेरा चल गया होता
वक़्त रहते गर साँप आस्तीन का निकल गया होता,
चाहने वालों से ही बरकरार है अब तक,
नूर वरना ताजमहल का भी ढल गया होता,
तपिश सच्चाई की तेरी बातों मे भी कम थी,
वज़ूद मेरे झूठ का वरना पिघल गया होता,
अपाहिज बना दिया मुझे, तेरे बेजा सहारे ने
ठोकरें खा के दो-चार, मे भी संभल गया होता,
खरीद लेता "बेकरार" भी जहाँ भर की खुशियाँ,
खोटा सिक्का गर बाज़ार मे मेरा चल गया होता
मुझे कहना नही आया
मुँह खोल के माँगूँ, मुझे कहना नही आया,
बिन माँगे मेरे यार को देना नही आया,
बशर्ते मुझे ख्वाइश रही उँची उड़ान की,
परिंदों के साथ मुझको मगर रहना नही आया,
बर्दाश्त कर भी लेता, मगर आदत खराब है,
जुल्मो-सितम चुप रह के मुझे, सहना नही आया,
लहरों से दुश्मनी की, कश्ती से हाथ धोया,
लहरों के साथ-साथ मुझे बहना नही आया,
बिन माँगे मेरे यार को देना नही आया,
बशर्ते मुझे ख्वाइश रही उँची उड़ान की,
परिंदों के साथ मुझको मगर रहना नही आया,
बर्दाश्त कर भी लेता, मगर आदत खराब है,
जुल्मो-सितम चुप रह के मुझे, सहना नही आया,
लहरों से दुश्मनी की, कश्ती से हाथ धोया,
लहरों के साथ-साथ मुझे बहना नही आया,
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