वक़्त रहते गर साँप आस्तीन का निकल गया होता,
चाहने वालों से ही बरकरार है अब तक,
नूर वरना ताजमहल का भी ढल गया होता,
तपिश सच्चाई की तेरी बातों मे भी कम थी,
वज़ूद मेरे झूठ का वरना पिघल गया होता,
अपाहिज बना दिया मुझे, तेरे बेजा सहारे ने
ठोकरें खा के दो-चार, मे भी संभल गया होता,
खरीद लेता "बेकरार" भी जहाँ भर की खुशियाँ,
खोटा सिक्का गर बाज़ार मे मेरा चल गया होता
No comments:
Post a Comment