कल्पना ही था वो एक,
मुझे बहलाने के लिए,
मा ने गढ़ा था उसे महज़,
मुझे खाना खिलाने के लिए,
अक्सर मेरी ना खाने की ज़िद पे,
मा अपने हाथ से नीवाला बनाती,
एक काल्पनिक कौवा, जो मेरा नीवाला खाने को,
तैयार रहता, उसका डर दिखाती,
और मे कौवे के खाने से पहले,
वो कौर जल्दी से खा लेता,
मा फिर से एक कौर बनाती,
और फिर से एक काल्पनिक कौवा,
ये सिलसिला बरसों चलता रहा,
लेकिन वो काल्पनिक कौवा,
मुझसे कभी जीत नही पाया,
ना ही वो कभी मेरे सामने आया,
मगर अब बरसों बाद,
काम के बोझ की शक्ल मे
अक्सर मेरा नीवाला वो कौवा खा लेता है,
मा, अब वो काल्पनिक कौवा हक़ीक़त है,
अब अक्सर वो जीत जाता है,
और मे हार जाता हूँ
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