तपती हुई दुपहरी मे वर्षा का कयास क्यूँ,
उष्णता ही भाग्य है तो शीतलता की आस क्यूँ,
गेरू-आ पहन भी गर राम और अल्लाह हैं दो,
तो लौट आओ समाज मे ये व्यर्थ का सन्यास क्यूँ,
एक -दूजे को देख-कर, हर एक बस ये सोचता है
सभी हैं मगन खुशी मे और में निराश क्यूँ,
मेरा घर रोशनी से हो भले सराबोर मगर,
बगलवाले झोंपडे मे दिए का प्रकाश क्यूँ,
हुए जमाने साथ मे मिल-बैठ के बतियाए हुए
अपनो के लिए कहो अपनत्व का ही नाश क्यूँ,
होते हुए को भूलना आसान है मुश्किल नही,
जो याद आते हैं सदा, होते नही वो पास क्यूँ
सेवा तो तुम कर ना सके, अब चुप तो रहो कपूत मेरे
वृद्धा-वस्था की अवधि का हास क्यूँ परिहास क्यूँ
बहुत अच्छा लिखा आपने...बधाई.
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'पाखी की दुनिया' में 'चल मेरे हाथी'