छतों पे बिखरी होती थी पतंगों की बहार,
नीचे बुलाती लालों को, माओं की पूकार,
छुपान-छुपी का खेल, सतोलिये का खुमार,
मंदिर मे प्रसाद के लिए लगाए लंबी कतार
साइकिलों की रेस मे गिरना-उठना बार बार,
टायरों के खेल और धूल के गुबार,
गुलेल छोटी सी शेर चीतों के शिकार
धमाल, मार-धाड़ फिर शर्ट तार तार,
हुआ गली के आवराओं मे अपना भी शुमार,
आईने मे चेहरा अपना ताकना बार बार,
हर शोख हसीना से कम्बख़्त हो जाता था प्यार,
पापा की लानतो से ही फिर उतरता था बुखार,
गर्मी की तपती लू भी लगे बसंती बयार,
हर पल नयी उमंग थी हर दिन था त्योहार,
क्या उम्र थी, क्या ज़ज़्बा था क्या क्या नही था यार,
वो दिन हवा हुए अब ज़िम्मेदारियों की मार,
हर रोज करती है नई मुसीबतें इंतज़ार,
मक्डोनाल्ड का बर्गर खाते हुए याद आ गया,
काँच की बरनी मे रखा आम का आचार
बहुत सुंदर ढंग से आप ने बचपन की यादो को इस कविता मे समेटा हे, धन्यवाद
ReplyDeleteहां भाई इस Word verification को हटा दो तो आप के लिये अच्छा होगा.
वाह, आपने हमें भी कर दिया बेकरार..
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा, कृपया यहाँ भी आयें और हिंदी ब्लॉग जगत को नया आयाम दे. उत्तर प्रदेश की आवाज़ को बुलंद करें. http://uttarpradeshbloggerassociation.blogspot.com
ReplyDeleteएक नज़र इधर भी. http://blostnews .blogspot .com
बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|
ReplyDeleteमक्डोनाल्ड का बर्गर खाते हुए याद आ गया,
ReplyDeleteकाँच की बरनी मे रखा आम का आचार
सच मे उस अचार जैसा स्वाद अब कहां। अच्छी लगी रचना। स्वागत एवं शुभकामनायें।
बहुत सुंदर रचना अंतिम पंक्तियाँ तो लाजवाब लगीं
ReplyDeleteमनोबल बढ़ने के लिए आप सभी लोगों का दिल से आभार..साथ बनाए रखें,
ReplyDeleteइस सुंदर से चिट्ठे के साथ आप का हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDelete