Powered By Blogger

Friday, February 11, 2011

कुछ तो ज़रूर है


ग़लत क्या है, अगर उन्हे हुस्न पे गुरूर है
इक निगाह ही देखा था मुझे अब तक सुरूर है, 


तुझे छूकर मेरे ख्वाब की तामील हो गई,
चाँद को कैसे छूता, जो कोसों दूर है,


तुम्ही तो सहते रहे हर ज़ुल्म बेआवाज़, 
अब इंतिहा हुई तो, किस्मत का कसूर है,


ना गोलियों की दरकार ना जाम की फरमाइश,
बेफिकर सो रहा है, जो थक के चूर है


बेखयाली मे भी दुपट्टा, सरकने नही देती,
मेरे मोहल्ले की लड़कियों मे अब भी सहूर है


सोच मे पड़ जाता है, जो तेरी ग़ज़ल पढ़े,
तेरी बातों मे "बेकरार" कुछ तो ज़रूर है

No comments:

Post a Comment