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Wednesday, February 16, 2011

काँच की बरनी मे रखा आम का आचार



छतों पे बिखरी होती थी पतंगों की बहार,
नीचे बुलाती लालों को, माओं की पूकार,
छुपान-छुपी का खेल, सतोलिये का खुमार,
मंदिर मे प्रसाद के लिए लगाए लंबी कतार
साइकिलों की रेस मे गिरना-उठना बार बार,
टायरों के खेल और धूल के गुबार,
गुलेल छोटी सी शेर चीतों के शिकार
धमाल, मार-धाड़ फिर शर्ट तार तार,
हुआ गली के आवराओं मे अपना भी शुमार,
आईने मे चेहरा अपना ताकना बार बार,
हर शोख हसीना से कम्बख़्त हो जाता था प्यार,
पापा की लानतो से ही फिर उतरता था बुखार,
गर्मी की तपती लू भी लगे बसंती बयार,
हर पल नयी उमंग थी हर दिन था त्योहार,
क्या उम्र थी, क्या ज़ज़्बा था क्या क्या नही था यार,
वो दिन हवा हुए अब ज़िम्मेदारियों की मार,
हर रोज करती है नई मुसीबतें इंतज़ार,
मक्डोनाल्ड का बर्गर खाते हुए याद आ गया,
काँच की बरनी मे रखा आम का आचार

8 comments:

  1. बहुत सुंदर ढंग से आप ने बचपन की यादो को इस कविता मे समेटा हे, धन्यवाद
    हां भाई इस Word verification को हटा दो तो आप के लिये अच्छा होगा.

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  2. वाह, आपने हमें भी कर दिया बेकरार..

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  3. आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा, कृपया यहाँ भी आयें और हिंदी ब्लॉग जगत को नया आयाम दे. उत्तर प्रदेश की आवाज़ को बुलंद करें. http://uttarpradeshbloggerassociation.blogspot.com

    एक नज़र इधर भी. http://blostnews .blogspot .com

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|

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  5. मक्डोनाल्ड का बर्गर खाते हुए याद आ गया,
    काँच की बरनी मे रखा आम का आचार
    सच मे उस अचार जैसा स्वाद अब कहां। अच्छी लगी रचना। स्वागत एवं शुभकामनायें।

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  6. बहुत सुंदर रचना अंतिम पंक्तियाँ तो लाजवाब लगीं

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  7. मनोबल बढ़ने के लिए आप सभी लोगों का दिल से आभार..साथ बनाए रखें,

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  8. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आप का हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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